जिस कंपनी के प्रोडक्ट को बाज़ार में 80 प्रतिशत हिस्सा हासिल हो और अचानक ही 5 महीनों के लिए बाज़ार से अपनी प्रोडक्ट बाहर निकालनी पड़े, तो कंपनी के पब्लिक रिलेशन्स के लिए इससे बुरा संकट क्या हो सकता है.
नेस्ले को अपनी प्रोडक्ट मैगी पर भारत में बैन लगने के बाद कंपनी को 40 करोड़ पैकैट नष्ट करने पड़े जिसकी कीमत लगभग सात करोड़ डॉलर थी.
इतना ही नहीं, जब सरकार भी कमर कस ले कि 'व्यापार करने के ग़लत तरीकों' के इस्तेमाल के आरोप में कंपनी पर 10 करोड़ डॉलर का दावा होगा, तब रास्ता और भी कठिन हो जाता है.
ऐसे हालात में नेस्ले की भारतीय बाज़ार में वापसी तो हुई है लेकिन भारत में कंपनी के मुख्य कार्यकारी सुरेश नारायणन के लिए पिछले पांच महीने आसान नहीं थे.
नारायणन कहते हैं, ''किसी भी संकट को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए.''
मैगी के लिए समस्या शुरू हुई 2015 मई में जब स्थानीय नियामकों (रेगुलेटर) ने कहा कि उन्हें दो मिनट में तैयार होने वाली इन नूडल्स के नमूनों में अधिक सीसा की मात्रा मिली है.
नेस्ले ने इस आरोप का खंडन किया और नमूनों की जांच से मिले नतीजों के ग़लत बताया.
लेकिन खाद्य नियामक एजेंसियों ने इसके उत्पादन और बिक्री पर रोक लगा दी. साथ ही कंपनी को पूरे देश के बाज़ार में उतारे जा चुके मैगी के पैकैट्स को वापस लेना पड़ा.
इसी साल के अगस्त में मुंबई उच्च न्यायालय ने इस पर लगी रोक को हटादिया.
लेकिन इस घटना के कारण कंपनी को पिछले 15 सालों में पहली बार किसी तिमाही में घाटा झेलना पड़ा.
पर संकट पर काब़ू पाने के लिए, नेस्ले की फिलिपींस की शाखा से भारत बुलाए गए सुरेश नारायणन के अनुसार इसका असर केवल हिसाब-ख़ाता तक सीमित नहीं था.
वे कहते हैं कि उत्पाद बनाने की पूरी प्रक्रिया के इस संकट ने झकझोर कर रख दिया था.
वो कहत हैं, ''गेहूं मुहैया कराने वाले किसान, मिल मालिक, पैकेजिंग के लिए सामान देने वाले सप्लायर, गाड़ियां चलाने वाले, कंपनी के 5 उत्पादन केंद्रों में मैगी बनाने वाले मज़दूर- सभी ने इसका असर झेला. पूरे भारत में मैगी बेचने वाली 4 लाख दुकानें इससे प्रभावित हुईं. आम आदमी को होने वाली परेशानी इस सबसे कहीं ज़्यादा थी. यह मेरे लिए बेहद दुखद था.''
लेकिन क्या नारायणन को लगता है कि कंपनी के साथ अन्याय हुआ?
नारायणन कहते हैं कि वे 'अन्याय' जैसे शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहते.
वो कहते हैं, ''खाद्य पदार्थ में सीसा जैसे भारी धातु की मात्रा जांचने का काम उन प्रयोगशालाओं में हुआ जो मान्यता प्राप्त नहीं थीं. इसका मतलब है उनके पास - मूलभूत सुविधाएँ, जांच करने के लिए प्रोटोकॉल या जांच करने के लिए क़ाबिल लोग - तीन में से किसी एक चीज़ की कमी थी. ऐसे में जांच के जो नतीजे मिले वे भरोसे के लायक नहीं थे.''
वे बताते हैं अमरीका की खाद्य नियामक, एफ़डीए सहित 8 देशों में मैगी को सुरक्षित पाया गया.
लेकिन नारायणन मानते हैं कि इससे ग्राहकों में उत्पाद को लेकर चिंता ज़रूर बढ़ी. और अब नेस्ले इस कोशिश में है कि वह लोगों को समझाए कि मैगी का सेवन ठीक है.
वे कहते हैं, ''हमें कुछ भी छिपाने की ज़रूरत नहीं. हमने गुणवत्ता का ख़याल रखा है और हम पूरी तरह पारदर्शी भी हैं. हमने अपनी वेबसाइट में जााच संबंधी सभी जानकारी पोस्ट की है.''
उन्हें भरोसा है कि समय के साथ लोग यह जान पाएंगे कि मैगी को लेकर उनका डर ''सच नहीं है.''
सुरेश नारायणन कहते हैं कि एक संस्था के तौर पर उन्होंने अभी इन घटनाओं का विश्लेषण नहीं किया है.
वे कहते हैं कि नेस्ले हमेशा नियामकों और साझेदारों के साथ सीधे बातचीत करती है और इस बार भी नेस्ले ने यही किया.
नारायणन बताते है, ''लेकिन जब यह भी काम नहीं आया, और चीजें हाथ से निकल गईं तो इसका क्या असर हुआ हम जानते हैं.''
वो उम्मीद करते हैं कि इस घटना के बाद भारत में खाद्य गुणवत्ता और सुरक्षा के लिए किए जाने वाले बदलावों को सकारात्मक दिशा मिलेगी.
नेस्ले अब उद्योग में अपने प्रतिस्पर्धियों के साथ मिलकर लेबोरेटरीज़ बनाना चाहता है, जिनसे सरकारी जांच प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिले.
पिछले एक दशक में नारायणन पहले भारतीय मूल के व्यक्ति हैं जो नेस्ले के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने हैं.
नारायण कहते हैं कि बीते पांच महीने कंपनी के लिए मुश्किल समय रहा है. लेकिन वो ये भी कहते हैं कि इससे जवाबदेही तय होगी और कंपनी इन चीज़ों पर नज़र रखेगी.
कंपनी ने 24 घंटे की कस्टमर हेल्पलाइन शुरू करने की योजना बनाई है और अब सोशल मीडिया पर ज़्यादा सक्रियता से काम होगा. लेकिन पहला काम ब्रांड मैगी की वापसी है.
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